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कभी बाबा आजम के ज़माने में primary की किताब में एक कविता हुआ करती थी कुछ इस प्रकार है
अम्मा जरा देख तो उप्पर
चले आ रहे हैं बादल
गरज रहे हैं बरस रहे हैं
दिख रहा है जल ही जल
उप्पर काली घटा घिरी है
निचे फेली हरियाली
भीग रहे हैं खेत बाग वन भीग रहे हैं घर आगन
बाहर निकलू में भी भीगू
चाह रहा है मेरा मन
लेकिन वर्त्तमान समय में प्रदुषण का ऐसा जाल फेला है की दूषित वातावरण को देख कर मैंने ठीक इसके विपरीत कविता रच डाली जो इस प्रकार है
माँ जरा देख तो उप्पर
धुल भरी आंधी है आई
चारों तरफ धुल ही धुल है
दिख रहा है धुंध ही धुंध
हवा बंद है बाहर गंध है
घुट रहा है मेरा दम
उप्पर सारी धुल भरी है
निचे धरती पर है मटियाली
मुरझा गए हैं पेड़ पौधे
ख़त्म हो गयी हरियाली
वायु प्रदुषण जल प्रदुषण ध्वनि प्रदुषण
ले रहा भयानक रूप
समय रहते सूझ बुझ से
हम सब मिलकर करें कुछ उपाय
तभी पर्यावरण स्वच्छ होगा
हो जायेगी खुशहाली
स्वस्थ मानव स्वस्थ समाज
देश बनेगा बलशाली
यह सपना साकार होगा कह रहा है मेरा मन
धन्यवाद
अजय पाण्डेय
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